राजनीती

पश्चिम बंगाल चुनाव का विश्लेषण

By ਸਿੱਖ ਪੱਖ ਜਥਾ

May 11, 2021

आदर्श रूप से, लोकतांत्रिक चुनाव समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक नीति के आधार पर लड़ा जाना चाहिए। लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों की कथा किसी नीति पर आधारित नहीं थी बल्कि चुनाव लड़ने के पैंतरों और युक्तियों पर आधारित थी। इसलिए, चुनाव के दौरान उठाए जाने वाले कदमों के आधार पर पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करना अधिक उपयोगी होगा। चुनावों में अपनाए जाने वाले प्रमुख चुनावी पैंतरे हैं:

धार्मिक ध्रुवीकरण: जिन राज्यों में मुस्लिम आबादी 15% से कम है, वहां भाजपा उच्च जाति के साथ अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), पिछड़े वर्ग (बीसी) और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के नोकरीपेशा हिस्से (मध्यम वर्ग) को मिलाकर जीतती है। उपरोक्त वर्गों के बीच भाईचारा और सद्भाव की कमी के बावजूद, भाजपा मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक ध्रुवीकरण कर के इन वर्गों के माध्यम से जीतने के लिए पर्याप्त वोटों का प्रबंधन करने में कामयाब हो जाती है। लेकिन पश्चिम बंगाल की खास बात यह है कि लगभग सवा सौ सीटों पर मुसलमानों की संख्या 20% से 90% है। 65 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिमों की आबादी 40% से अधिक है। लगभग 30-35 सीटों की मुस्लिम आबादी 30% से 40% है और करीब 30-35 सीटों पर ही मुस्लिम आबादी 20% से 30% के बीच है। इससे लगभग 130 सीटें बनती हैं जहां मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है। परिणामस्वरूप, धार्मिक ध्रुवीकरण का विपरीत प्रभाव पड़ा है, और इन सीटों पर मुस्लिम वोट, जो एक से अधिक पार्टियों में विभाजित हुआ करते थे, भाजपा को हराने के लिए तृणमूल कांग्रेस के पास चले गए । 2019 के लोकसभा चुनावों में मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, बेहरामपुर और रायगंज में मुस्लिम बहुल सीटों पर तृणमूल कांग्रेस. सीपीएम और कांग्रेस की हार मुस्लिम वोटों के विभाजन के कारण हुई।

पिछली बार कांग्रेस पार्टी द्वारा जीती गई 44 सीटों में से 29 सीटें इस बार तृणमूल कांग्रेस ने जीती हैं, जिनमें से 26 सीटों पर मुस्लिम आबादी का वर्चस्व है।

2021 में मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा की हार का मुख्य कारण यह है कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ‘सबक’ सीख लिया है; और दूसरी बात यह है कि धार्मिक ध्रुवीकरण में भाजपा की जोरदार कवायद ने मुसलमानों को और भी अधिक सतर्क कर दिया है और वे भाजपा को रोकने के लिए अधिक दृढ़ संकल्पित हो गए हैं और एकीकृत होकर तृणमूल का समर्थन कर गए।

25% मुस्लिम अबादी वाले जिलो के चुनावी नतीजे
15% से 25% मुस्लिम अबादी वाले जिलो के चुनावी नतीजे
15% से कम मुस्लिम अबादी वाले जिलो के चुनावी नतीजे

सामाजिक गठबंधन: उत्तर भारत के राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार,आदि) में राजनीति का मुख्य आधार सामाजिक गठबंधन है क्योंकि इन राज्यों में जाति के आधार पर पार्टियां बनती हैं और उसी आधार पर वोट डाले जाते हैं। भाजपा सामाजिक गठबंधन की युक्ति का उपयोग करती आ रही है ।

आर.एस.एस. लंबे समय से पूर्वी भारत के आदिवासियों (एसटी समुदायों) के बीच सामाजिक स्तर पर सक्रिय भूमिका निभा रही है, जिसका असर पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान एस.टी.आबादी वाले पुरुलिया, बांकुरा और पश्चिम बर्धमान जिलों में देखने को मिला है।

एस. टी. आबादी वाले जिलों के चुनावी नतीजे

पिछले कुछ समय से आर.एस.एस., पिछड़ा वर्ग (एससी समुदायों) में भी काम कर रहा है और इसका असर नादिया और उत्तर 24 परगना जिलों के एससी सीटों पर भाजपा की जीत के रूप में देखा जा सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात ध्यान देने की है कि जाति-आधारित समुदायों ने विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग व्यवहार प्रकट किए हैं। असम से सटे कूच बिहार, अलीबरदार, जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग में हिंदू उच्च जाति के लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है, हालांकि कलकत्ता और आस-पास के जिलों में हिंदू सवर्णों (सज्जनों) ने एक अलग रवैया दिखाया है (जिसका विश्लेषण अगले बिंदु में किया गया है ।

देशभक्ति की भावना: देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना और हिंदू समाज के विभिन्न वर्गों को एकीकृत कर लेना भाजपा की एक मुख्य चुनाव युक्ति रही है लेकिन बंगाली संस्कृति के केंद्र कलकत्ता और आसपास के जिलों – हुगली, हावड़ा, पूर्वी बर्धमान, उत्तर 24 परगना और दक्षिण 24 परगना जिले के कलकत्ता शहर से सटे हुए आसपास के इलाके में हिंदू सवर्णों (सज्जनों) के वोट तृणमूल कांग्रेस को बाकी इलाकों (असम से सटे जिलों) के मुकाबले ज्यादा मिलें हैं। इसका कारण यह है कि हिंदू सवर्ण (सज्जनों) जो खुद को देश का मार्गदर्शक मानते हैं, उन्होंने अपनी बंगाली सांस्कृतिक पहचान को भारतीय राष्ट्रवादी पहचान से बेहतर माना है और उसके ऊपर रखा है।

कोलकाता के चुनावी नतीजे

पिछला प्रदर्शन: पहले, मोदी-शाह अन्य चुनावों में गुजरात मॉडल का प्रचार करते थे, लेकिन अब केंद्र में सत्ता में आए उन्हें सात साल हो चुके हैं, इस दौरान आर्थिक क्षेत्र (काले धन की वापसी, नोटबंदी, जी एस टी ) विदेश नीति और रक्षा-नीति (चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा तनाव की घटनाएं), कृषि सुधार नीति और प्रशासनिक (क्रोना महामारी) स्तर पर मोदी सरकार की बुरी तरह से विफलता सामने आयी है। इसलिए मोदी-शाह के पास अपने पिछले किये गए कार्यो को बताने के लोए कुछ ख़ास नहीं था। इसके विपरीत, ममता बनर्जी के पास 10 वर्षों का और खासकर पिछले 2 वर्षों का सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर किये गए कार्यों को बताने के लिए बहुत कुछ था जिसे उन्होंने सही तरीके से प्रचार किया।

भविष्य का सपना: भाजपा, शहरी संपन्न और ग्रामीण शिक्षित युवाओं को डिजिटल इंडिया का सपना दिखाती आ रही थी, लेकिन पिछले सात वर्षों में, भाजपा के डिजिटल इंडिया या मेक इन इंडिया जैसी चीजें केवल नारे साबित हुए हैं। इसके अलावा, ये चुनाव वैश्विक आर्थिक मंदी के समय में हुए हैं। बंगाल में अधिकांश आबादी गरीब है जिनकी प्राथमिकता मूलभूत सुविधाओं पर है और उनके लिए डिजिटल इंडिया जैसे नारे मायने नहीं रखते। भविष्य के एक सपने के रूप में भाजपा ने ‘सोनार बांग्ला’ का नारा दिया, लेकिन नारे में हिंदुत्व प्रतीकों, हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया गया । यह उत्तर भारत में तो काम करता है लेकिन बंगाल में काम नहीं कर सका। ममता ने इसके खिलाफ बंगाली प्रतीकों और बंगाली भाषा में नारे लगाए, जो अधिक प्रभावी साबित हुए।

व्यक्तिगत प्रभाव: भाजपा ने ममता बनर्जी की तुलना में बंगाल में किसी भी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं उठाया और न ही भाजपा के पास ममता बनर्जी के कद का कोई स्थानीय नेता है। ममता बनर्जी जमीनी स्तर से बंगाल में राजनीतिक संघर्ष के वर्तमान चरण में पहुंच गई हैं, जबकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह का बंगाल में ऐसा कोई व्यक्तिगत प्रभाव नहीं है।

विपक्षी वोटों को विभाजन: ध्रुवीकरण की राजनीति के कारण, मुसलमान भाजपा को हराने के लिए किसी अन्य पार्टी को वोट देने के लिए बाध्य हैं। 2019 में मुस्लिम वोट के तृणमूल, सीपीएम और कांग्रेस के बीच विभाजित होने के कारण, भाजपा ,बंगाल में लगभग 120 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी, लेकिन इस बार तृणमूल को लगभग 80% मुस्लिम वोट मिले हैं।

सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास: भारत में राजनीतिक नेता चुनावों के दौरान ‘ पीड़ित कार्ड’ खेलते रहे हैं। मोदी खुद को खतरा बताकर गुजरात में वोटों का फायदा उठाते थे। इस बार मोदी-शाह तो सहानुभूति नहीं ले सके, लेकिन तृणमूल नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों द्वारा की गई छापेमारी, केंद्र सरकार द्वारा चुनावों में केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती, सीतलकुची गोलीकांड जिसमें चार लोगों की केंद्रीय बलों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई थी,आदि के संदर्भ में, ममता को सहानुभूति मिली और उन्होंने अपने चुनाव अभियान का हिस्सा बनाया।

प्रतिद्वंद्वी में भय पैदा करना, आतंक का माहौल बनाना: भाजपा लव-जिहाद और गोमांस के मुद्दे को उठाकर मुसलमानों में भय की भावना पैदा करती है। दूसरी ओर, भाजपा केंद्रीय एजेंसियों (सीबीआई, आयकर, ईडी, आदि) के माध्यम से विपक्ष के नेताओं पर दबाव डालती है। उत्तर प्रदेश में,भाजपा के लिए यह चाल प्रभावी रही है, लेकिन बंगाल में नहीं। एक ओर, ममता बनर्जी ने केंद्र की जबरदस्ती का विरोध किया और केंद्रीय एजेंसियों के छापे के संदर्भ में सहानुभूति की मांग की; दूसरा, पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों की संख्या उत्तर प्रदेश की तुलना में अधिक है और कई सीटों पर यह 90 प्रतिशत तक है।

चुनाव लड़ने का कौशल: ध्यान देने योग्य बात है कि भाजपा के चुनाव लड़ने के कौशल ने पश्चिम बंगाल चुनावों में भाजपा को न केवल चुनावों के दौरान बल्कि एकतरफा चुनाव प्रचार के दौरान भी अपने कथन और जमीनी स्तर पर बूथ प्रबंधन बनाने की ताकत दी और अत्यंत कठिन प्रतियोगिता (नेक-टू-नेक फाइट) की सामान्य अवधारणा बनी रही।